শনিবার, ২ আগস্ট, ২০১৪

जाड़े की  एक सुबह
धुंधले अक्स ,कोहरे से ढके
यूँ ही फिरते चाय की तलाश
शाल लपेटे बालकनी से झांकना बाहर
गुलमोहर की गहरी सांसे
और ,और तुम.......
 हमारी यादों में
पता नहीं क्यु
बस यूँ ही ………

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