শনিবার, ২ আগস্ট, ২০১৪


बेख्याली  का आलम  तो वो था की 
बेवजह बेशर्म हो चल पड़ा था 
बेगाने  किसी की बातों की ओर 
बेअदब सड़क ही इतनी बेवफा निकली 
बेज़ुबान बेचारे कदमो को पहुँचा दिया 
बरबस ही बेजान से बेबस खड़े  घर के बाहर 
ये बात और थी की बिन बताए 
बंदिशे तोड़ वो पहले से खड़ी थी वहाँ 
बड़ी बड़ी आँखों में घुला नमक 
तेरे लिए  उस दिन 
चाय तो बिना शक्कर के बनाई थी 
तेरे रुख़्सार से गिरी आंसू की एक बूँद,
जो तूने यूँ नकारा 
टपकी जो मेरी चाय में 
चाय बरबस ही मीठी लगने लगी ........


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