শনিবার, ৯ এপ্রিল, ২০২২

রেত সমাধি

 


আমরা সবাই জানি আগের সপ্তাহে 'গাঁওবুড়ো' গল্পের জন্য ও হেনরি সাহিত্য পুরস্কার পেয়েছেন সাহিত্যিক অমর মিত্র। এই খবর শুনে অনেকেই আহ্লাদিত, কিন্তু সুসংবাদ এখানেই শেষ নয়। কাল জানা গিয়েছে সাহিত্যিক গীতাঞ্জলি শ্রী-এর লেখা উপন্যাস 'রেত সমাধি' বুকার পুরস্কারের শর্ট লিস্টে চলে এসেছে। (ছ'টা বইয়ের মধ্যে পাঁচজন লেখিকা, চারটে ইন্ডিপেন্ডেন্ট পাবলিশার্স। শুনেও ভালো লাগে) এতদিন ধরে কোনও ভারতীয় ভাষার উপন্যাস এই স্বীকৃতি পায়নি। সে অনুবাদ না হওয়ার কারণে হোক, থার্ড ওয়ার্ল্ড কান্ট্রিকে হেয় চোখে দেখার কারণে হোক, প্রকাশনা সংস্থার দূরদর্শিতার অভাব বা প্রচারের ব্যর্থতা হোক... সে তর্কে আমি যাচ্ছি না। মোদ্দা কথা হল গীতাঞ্জলি শ্রী শর্টলিস্ট হওয়ার পর অনেকেই বলছেন, ইনি আবার কিনি? জিন্দেগিতে নাম শুনিনি। গীতাঞ্জলি যখন শর্টলিস্ট হতে পারেন, অমুক অমুক ব্যক্তিও হতে পারতেন। পাগলের প্রলাপ! গীতাঞ্জলির সাহিত্যকৃতি নিয়ে বেচারাদের কিছুই জানা নেই। (অমরদাকে নিয়ে অবশ্য এমনটা হওয়ার কথা নয়, তাঁর লেখা একাধিক বই ক্লাসিক হওয়ার যোগ্য, সবাই তাঁকে চেনেও। কিন্তু এরকম আলটপকা মন্তব্য বাংলাতেও চোখে পড়েছে, আমল না দেওয়াই বেস্ট)
যাই হোক, এই পোস্টের উদ্দেশ্য অবশ্য এ নিয়ে চর্চা করা নয়। পুরস্কারের একটা বিশেষত্ব হল, কোনো বই উল্লেখযোগ্য সম্মানের জন্য নমিনেট হলে সে বইটার কথা সকলের মনে পড়ে যায়। এইবারও তাই হয়েছে। গীতাঞ্জলি এর আগে চারটে উপন্যাস লিখেছেন ( মাই, হামারা শহর উস বরস, খালি জগহ, তিরোহিত), চারটে গল্প সংকলনও ( প্রতিনিধি কাহানিয়াঁ, অনুগুঁজ, ইহাঁ হাতি রাহতে থে, ব্যায়রাগ্য) আছে। আন্তর্জাতিক সাহিত্য জগতে তাঁর নামও আছে, কিন্তু আমজনতার জনপ্রিয় লেখিকা হওয়া তাঁর অদৃষ্টে ছিল না, হাজার হাজার কপি বইও তাঁর বিকোয়নি। কিন্তু যারা খবর রাখেন, তাঁরা গীতাঞ্জলির কথা জানতেন। অনেক আগে আমি তাঁর লেখা কিছু গল্প পড়েছিলাম, সাম্প্রতিকতম উপন্যাসগুলো বিশেষ পড়া হয়নি। এমনিতেও ভদমহিলা খুব বেশি লেখেন না, যদিও তিনি তিরিশ বছরের বেশি সময় ধরে সাহিত্য জগতে সক্রিয় আছেন। যাই হোক, আমার হিন্দি সাহিত্য নিয়ে আগ্রহ আছে। একদম কিছু পড়িনি, সেটা অন্তত বলা যাবে না। বুকারে লংলিস্ট হওয়ার আগেই রেত সমাধির ইবুক কিনেছিলাম, কয়েক পাতা পড়ে রেখে দিয়েছিলাম তখনকার মতো। কাল বুকারে শর্টলিস্ট হওয়ার পর এইসা তর্ক শুরু হল ফেসবুকে ( এই বইটা কেন? হুই বইটা, হুই লেখক কী দোষ করেছিল?) যে বইটা খুঁজে পড়তে শুরু করেছি। ইয়া মোটকা বই, এক সপ্তাহ মিনিমাম লাগবে। কিন্তু প্রথম পঞ্চাশ ষাট পাতা পড়ার অভিজ্ঞতাটা লিখে রাখতে চাই। অভিজ্ঞতা বলতে শুধু দুটো পয়েন্ট। ভোম্বল হয়ে আছি বলে যা ইচ্ছে তাই লিখব, মারবেন না প্লিজ।
১) শুরু করেছিলাম হাই তুলতে তুলতে। পাঁচ মিনিট যেতে না যেতেই দেখলাম, মাথা ঘুরছে। বুকার প্রাইজে কোনো বই যে এমনি এমনি নমিনেট হয় না, সেটা বইটা আমাকে গালে চড় মেরে বুঝিয়ে দিতে চাইল। গীতাঞ্জলি সাধারণ উপন্যাসে ব্যবহৃত গল্প, ভাষা, ট্রিটমেন্ট সমস্ত কিছুকে ভেঙে যে লেখা লিখেছেন, তেমনটা আমি জীবনে পড়িনি। আবার এক্সপেরিমেন্ট বলতেও বাধছে। পরীক্ষানীরিক্ষা করতে চাইলে কেউ পাঁচশো শব্দের উপন্যাস লেখে? প্রতিটা বাক্য অসামান্য। এমন অনুপুঙ্খ বিবরণ লেখায় আসে না, এই অনুভূতি হয় শুধু মনেই। এই উপন্যাসের ফর্ম কাহিনি, চরিত্র, সংলাপ, ঘটনার উর্ধ্বে গিয়ে যে মায়াজাল রচনা করেছে সেটা পড়ে মাথা ঝিমঝিম করে। আবার ভালোও লাগে। নেশা হয়ে যায়। এখানে চরিত্ররা তাঁদের সাংকেতিক অস্ত্বিত্ব নিয়ে ঘুরে বেড়ায়, ঘটনার উল্লেখ হয় রেফারেন্স হিসেবে, সংলাপ আসে মোনোলগ হয়। প্রতিদিনকার ক্ষুদ্র ঘটনাবলির বর্ণনায় এমন একটা মায়াজগত সৃষ্টি হয়, যেখানে ঢুকে পড়লে আর বেরোনো যায় না। অতীত আসে, ভবিষ্যত আসে, স্মৃতিকথা আর ইতিহাসও আসে। ফিরেও যায়। মুগ্ধতার আবেশ আর কাটে না। এই লেখার গভীরতা নিয়ে আলোচনা করার আস্পর্ধা আমার নেই। বললে বলতে হয়, এই বইটা নিজেই একটা মানুষের মনের শামিল। মন নিয়ে আর কী বলা যায়? এটাই বলব, যত তাড়াতাড়ি সম্ভব পড়ে নিন।
২) লেখা ছাড়া যে কথাটা আমাকে ধাক্কা দিল, সেটাই আসল। অনুবাদ। আমি হিন্দিতে পড়তে পড়তে প্রতি মুহুর্তে ভেবে যাচ্ছি, এই বইটার অনুবাদ কী করে হয়? আদৌ কি এই বইয়ের অনুবাদ সম্ভব? ডেইসি রকওয়েল খুবই অভিজ্ঞ অনুবাদক, হিন্দি-উর্দু অনুবাদে তাঁর দক্ষতা নিয়েও কথা হবে না। কিন্তু এই বইটার ঠিকঠাক অনুবাদ কী করে সম্ভব? ভিন্নভাষী কোনো অনুবাদক এই জীবনকে কী করে বুঝবে? এই ছকভাঁঙা ন্যারেটিভের দুই বা তিন শব্দের বাক্য কোন ইমোশন নিয়ে লেখা হয়েছে, সেটা কি বোঝা সম্ভব?
কিন্তু সম্ভব হয়েছে ঠিকই। আর সম্ভব হয়েছে বলেই বুকার পুরস্কারে মনোনীত হয়েছে টুম্ব অফ স্যান্ড। হ্যাটস অফ টু ডেইসি রকওয়েল। কিন্তু কেন এই কথাটা আমাকে বারবার দ্বিধাগ্রস্ত করল, সেটা বোঝানোর জন্য কয়েকটা অনুচ্ছেদ দিয়ে গেলাম। পড়ে দেখবেন সময় হলে।
"नहीं, मैं नहीं उठूँगी। गठरी लिहाफ में ढुकी बुदबुदा देती। नहीं अब तो मैं नहीं उठूँगी। वाक्य ने उन्हें हिला दिया और बच्चे और ज़िद करने लगे। वे डर जो गए। हाय उनकी अम्मा। पापा गए और उसे भी ले गए। सोती मत रहिये, उठिए। सोती रहती हैं। पड़ी रहती हैं। आँखें मूँदे। पीठ कर के। कानागोसी चलती। पापा थे तो हरदम उनकी देखरेख में, फ़ुर्तीली, मुस्तैद, लाख थकन हो तो भी। चूर चूर होते जाने के चूरे में व्यस्त, जीवन्त। खीजती, खफ़ाती, सँभालती, फफांती, साँस पर साँस पर साँस चलाती।क्योंकि सभी की साँस उसी में चलती, सभी की साँस वो चलाती। और अब, कि नहीं उठना मुझे। जैसे पापा ही जीने का मक़सद थे। गए तो गया। नहीं अम्मा नहीं, बच्चे हठ करने लगे, बाहर देखो धूप खिली है, उठो, उठाओ, छड़ी टंगी है, चूड़ा खाओ, मटर पड़ी है, पेट बहा है, राई फंकाओ। नहीं मैं नहीं, नइ नइ, माँ कुनमुना जाती। थकी बेचारी, अकेली हारी। उसे उठाओ, उलझाओ, उसका मन लगाओ, अकूत दया उन में गंगा जी की तरह बहती, और माँ की पीठ पर लहर जाती। अब्ब नइ, माँ चीखना चाहती। उसका मरा मरा स्वर निकलता। क्या माँ ने सोचा होगा कि उसे जिलाने की बच्चों की कोशिश उसे दीवार में घुसा रही है? क्या ऐसा था? कमरे की तरफ़ पदचाप आती और वो पीठ कर लेती, दीवार में सटने लगती। मरती जाती, आँख नाक बंद, कान ठप्प, मुँह सिला, मन सुन्न, अरमान नदारद, पखेरू उड़ उड़। पर बच्चे भी ढीठ। जुटे रहते, पीठ पर आँख नाक कान उगा दें कैसे। बाटी बघार दस्त की कह कर। वही किचकिच कचायन। वही चूल्हा लकड़ी आटा। वही पोतड़े साफ़ करो। नइ नइ, वह दोहराती जाती। किसी षड्यंत्र के तहत नहीं, बल्कि यंत्र की तरह। ऊबा हुआ यंत्र। अफरा हुआ तंत्र। किसी चीज़ में अपने को सर्फ़ न करने की काहिली में वह फिर फिर बेऊर्जा बुदबुदाती — नहीं न ननइ...अब्ब नइई उठूँगी...चंद शब्द जिनमें बच्चे घबरा रहे थे, माँ मर रही थी। शब्द। शब्द होते क्या हैं जी? ध्वनि जिसमें वे अपने मतलब झुला देते हैं। जिनका कोई प्रमाण नहीं होता। अपनी राह निकल लेते हैं। मरते तन और मन के अवसाद से उपजे, अपने मतलब का उलट मतलब पकड़ लेते हैं। बोया बीज खजूर का, खिला वहाँ गुड़हल। अपने ही संग दंगल! अपने ही खेल में रत!
अभी नहीं उठूँगी, के डर और मर से कौन खेल रहा था? यांत्रिक ये शब्द तांत्रिक हो चले और माँ कह वह रही थी, पर वह था कुछ और, या हो गया। इच्छा या बेमक़सद लीला? नहीं नहीं मैं नहीं उठूँगी। अब तो मैं नहीं उठूँगी। अब्ब तो मैं नइ उठूँगी। अब्ब तो मैं नइई उठूँगी। अब मैं नयी उठूँगी। अब तो मैं नयी ही उठूँगी।
शब्दकी एक पौध। अपनी उसकी लहराहट। उसमें लुकी मुरादें। मरतों के ‘नहीं’ के अपने राज़। ‘नहीं’ के अपने ख्वाब। इस तरह। कि एक पेड़ खड़ा जड़ा। पर थक तो रहा है उन्हीं उन्हीं चेहरों के साये में घिरने से, उन्हीं खुशबुओं के पत्तों से लिपटने पे, उन्हीं ध्वनियों की डालियों पे चहचह से। होते होते हो गया कि पेड़ की साँस उखड़ती सी और उसकी बुदबुद में ‘नहीं नहीं’। मगर हवा है और बारिश और ‘नहीं’ की फूँक उन में उड़ जो पड़ी है और एक कतरन का आकार भी पा गयी है। जो फरफर फहरती है, फिर फड़ फड़ फडफ़ड़ाती है और डाली पर मन्नत का फीता बना के उसे, हवा और बरसात मिलकर बाँध देते हैं। हर बार एक गाँठ और लगा देते हैं। एक और गाँठ। एक नई गाँठ। एक नयी गाँठ। एक नई चाह। नई। नयी। हो जाना। ‘नहीं’ की नयी झंकार। फरफर फडफ़ड़ फड़क फड़क। तो पेड़ वही। सामने जो नज़र में है। उसके तने पर और नीची झुकी डालियों पर धुएँ सी घूँघर ‘नहीं नहीं नहीं’, ऊपर लहराती उलझती ‘नहीं नहीं नई’ और फिर डालियाँ और फुनगियाँ जो हाथ हैं और उँगलियाँ, आसमान में चाँद को लपकती, ‘नई नयी’। या छत से। लपकती खिसकती। या दीवार से। जिसमें एक छिद्र मिल गया है, या बन गया है, जहाँ से नन्हा सा जीव, एक कतरा साँस की तरह, बाहर को सरकता। फूँक दर फूँक दीवार गिराता।

আপডেট: এই হল ইংরেজি অনুবাদ। আপনারাই সিদ্ধান্ত নিন মূলানুগ হয়েছে কিনা।


No, I won’t get up, no getting up, not now, the bundle wrapped in the quilt mumbled. No, no, not now, not getting up. These words alarmed them, and her children grew more insistent. They were afraid. Oh! Our dear mother! Papa’s gone and he’s taken her with him! Stop sleeping so much, please get up. She keeps sleeping. She just lies there. Eyes closed. Back to them. They whisper. When Papa was alive, she had put her all into looking after him. She was alert, at the ready, no matter how tired. Busy getting ground to a pulp; very much alive. Irritable, upset, coping, faltering, breathing breath after breath after breath. Everyone’s breath flowed through her, and she breathed everyone’s breath. And now she’s saying she won’t get up. As though Papa was her only reason for living. Now he’s gone, has her reason too? No, Ma, no, the children insisted, look outside, the sun is shining, get up, pick up the cane, it’s hanging right here, try some roasted rice, it has peas in it. Maybe she has loose motions, give her a digestive powder! No, I will noooot. No, nyo, nyooo, Ma mewls. She’s tired, poor thing, alone and defeated, lift her up, get her involved; entertain her! Sympathy flows from them immeasurable as the waters of the Ganga, washing over Ma’s back. Noooot nooooow, Ma tries to scream. But her voice comes out a whimper. Did Ma think that her children’s efforts to make her live were pushing her into the wall? Was that it? When footsteps neared the room, she’d turn her back, she’d stick to the wall. She’d play dead, eyes and nose closed, ears shut, mouth sewn, mind numb, desires extinct; her bird had flown. But the children were also stubborn. They dug in. How to make eyes nose ears grow on that back? It was all the same old, same old to her. Same squabbling and squalling. Same fire, fuel, and flour. Same wash the diapers. Nyoooo, nyooooo, she repeated. Here was no machination: her words—machinelike. A machine winding down. A worn-out mechanism. In the languor of conserving energy, she mumbled weakly, no, nnnnno, nnnoooo. Nooooo not gettting up anymooooore. Just a few words, but they alarmed the children. Ma is dying! Words. But what are words, really, hmmm? They’re mere sounds with meanings dangling from them. That have no logic. They find their own way. Arising from the squabble between a sinking body and a drowning mind, they grab hold of antonyms. The seed planted was a date tree; what blossomed was hibiscus. They wrestle with themselves—wrapped up in their own game. No, now I won’t get up : who was playing with the fear and death of that phrase? These mechanical words became magical, and Ma kept repeating them, but they were becoming something else, or already had. An expression of true desire or the result of aimless play? No, no, I won’t get up. Noooooo, I won’t rise nowwww. Nooo rising nyooww. Nyooo riiise nyoooo. Now rise new. Now, I’ll rise anew.
A sapling of a word. Creating a ripple all its own. Full of hidden desires. The noes of the dying hold their own secrets. Their own dreams. Like this. A tree grew, took root. But: tired of the circling shadows of familiar faces, of the embrace of leaves of familiar fragrances, of the chirping on the branches, of the same old vibrations. And so it came to be that the tree felt stifled and murmured, no, no! But there is wind and rain, and the puff of no that flies up between them and takes the form of a snippet. A scrap, that flutters and flaps and flit-flit-flitters and swirls about the branch into a ribbon of desire that wind and rain unite to bind there. Each time they tie another knot. One more knot. A no, not. A know knot. A knew knot. A new knot. A new desire. New. Nyoo. Becoming. The new refusal of no. Flutter, flitter, flap flap flap. So it’s the same old tree. The one you see right in front of you. A plume of smoke— no no n o —on its trunk and low-hanging branches, trailing and dangling from above— no no nyo —and then the branches and shoots—hands and fingers—leap towards the moon in the sky— no nyoo —new new. Or from the ceiling. Leaping dragging. Or from the wall. Where it has found a hole, or made one, from where a tiny being, a jagged breath, crawls out. Breaking down the wall, puff by puff.

জাস্ট ইন কেস

অ্যালেক্সেন্দ্রা ডেভিড নীল

"To the one who knows how to look and feel, every moment of this free wandering life is an enchantment."

যিনি কথাটা বলেছিলেন, তিনি পঞ্চাশ বছরেরও বেশি হল মারা গিয়েছেন। তাঁর নাম অ্যালেক্সেন্দ্রা ডেভিড নীল। ১৮৬৮ সালে জন্ম, ১৯৬৯ সালে মৃত্যু। অভিযাত্রী, লেখক, অপেরা সিঙ্গার, অ্যানার্কিস্ট, সমাজকর্মী, দার্শনিক, ব্যবসায়ী... এই সূচি শেষ হওয়ার নয়। ছয়ের দশকে যখন আমেরিকা ইউরোপের যুবক যুবতীদের দল দলে দলে হিপি হয়ে পথে বেরিয়ে পড়েছিল, তাদের মধ্যে কেউই এই মহীয়সী মহিলার কথা জানত বলে মনে হয় না। জানলে হয়তো তিনি অচিরেই হিপি সম্প্রদায়ের শ্রদ্ধাভাজন হয়ে উঠতেন। তাতে অবশ্য তাঁর নিজের বিশেষ আগ্রহ থাকত না। পঁচানব্বই বছর বয়সী অ্যালেক্সেন্দ্রা নীল তখন পুরোদমে আফ্রিকা অভিযানের স্বপ্ন দেখছেন। উনবিংশ শতাব্দীর এই অসম সাহসী মহিলার জীবন সম্পর্কে জানলে মনে হয়, আমরা কী ভাটের জীবন কাটাচ্ছি? মানুষ হয়ে জন্মে কী লাভটাই না হল?

অ্যালেক্সেন্দ্রার বাবা ও মায়ের জীবনও কম বৈচিত্র্যময় ছিল না। মা রোমান ক্যাথোলিক হলেও বাবা প্রোটেস্ট্যান্ট ছিলেন, তারপর ফ্রিম্যাসনারি মুভমেন্টের সঙ্গে যোগাযোগও ছিল তাঁর। ফরাসি বিপ্লবের সঙ্গে জড়িত ছিলেন পরোক্ষ ভাবে, সঙ্গে অ্যানার্কিস্ট দর্শনের প্রচারকও ছিলেন। ফ্রান্সের সোশ্যালিস্ট সমাজে ওঠাবসা ছিল তাঁদের। বনেদি ও ডাকসাইটে পরিবার বলতে যা বোঝায় আর কি! কিন্তু তিনি মোটেও জানতেন না, মেয়ের জীবন হতে চলেছে একেবারেই অন্য ধাঁচের।

অ্যালেক্স ছিল ছোটবেলা থেকেই অন্যরকম। সে যুগে ফরাসি মেয়েদের অসম্ভব নিয়মকানুনের মধ্যে দিয়ে মানুষ করা হত, কিন্তু ওসব দিয়ে লাভ কিছুই হয়নি। অ্যালেক্স সুযোগ পেলেই রাস্তায় চলে যেত, গাছের উপর উঠে বসে থাকত, পাখির বাসার দিকে তাকিয়ে স্কুলের হোমওয়ার্কের কথা ভুলে যেত, রেললাইনের ধারে ঘণ্টার পর ঘণ্টা বসে থাকতে পারলে আর কিছুই চাইত না। সে অবাক হয়ে ভাবত, কতদূর চলে গেছে এই রেললাইন! সেখানে সে কখনও যেতে পারবে? তার সই- সঙ্গীরা যখন জামাকাপড় আর সামার পার্টির স্বপ্ন দেখত, অ্যালেক্স স্বপ্ন দেখত পাহাড়ের। তুষারশুভ্র পর্বত, দুর্ভেদ্য অরণ্য, দুর্গম গ্লেশিয়ার। তেরো বছর অব্দি বাবা মায়ের কাছে অ্যালেক্সের একমাত্র আবদার ছিল, ম্যাপ আর ভ্রমণের বই। 

পনেরো বছর বয়স হতে না হতেই অ্যালেক্স বাড়ি ছেড়ে পালায়। নেদরল্যান্ডসে গিয়ে ইংরেজি শিখবে বলে যাত্রা শুরু করলেও আসলে তার লক্ষ্য ছিল ভ্রমণের অভিজ্ঞতা সঞ্চয় করা। কত রকমের মানুষ, কত রকমের কথাবার্তা, পোশাক আশাক, খাবার। পথে বেরিয়ে অ্যালেক্স যেন হাতে চাঁদ পেল। লন্ডনে যাওয়ার ইচ্ছে ছিল, কিন্তু টাকা শেষ হয়ে যাওয়ায় বাড়ি ফিরতে হল। বকুনি ও গঞ্জনা শুনে কয়েক মাস কাটিয়ে আবার পালাল সে। আবার ফিরে এল, তারপর আবার পালাল। আঠেরো বছর বয়সে দেখা গেল, লন্ডন তো কিছুই নয়, মেয়ে স্পেন আর সুইটজারল্যান্ডও চষে এসেছে। তবে ওইটুকু দিয়ে অ্যালেক্সের মন কি ভরে? লন্ডনের থিওসাফিকাল সোসাইটিতে গিয়ে বৌদ্ধ ধর্মের প্রতি তার মনে আগ্রহ জন্মেছিল, তাই একুশ বছর বয়সে সে ভারতবর্ষ আর শ্রীলঙ্কায় দেড় বছর কাটিয়ে গেল। খুব সম্ভবত ১৮৮৯ সালেই অ্যালেক্স বৌদ্ধ ধর্মে দীক্ষিত হয়। ইতিমধ্যে তার জানার পরিধি উল্লেখযোগ্য ভাবে বেড়েছে, থিওসাফিকাল সোসাইটিতে থাকাকালীন বহু জ্ঞানীগুণী লোকের সঙ্গে পরিচয় হয়েছে। অ্যানার্কিস্ট নেতা এলিজে রেক্লুসের কথা শুনে অ্যালেক্স জার্নাল লিখতে শুরু করে, এরপর সে সারা জীবন জার্নাল লিখে গেছে। ওই বয়সেই Pour la vie বলে একটা বই লিখে ফেলেছিল অ্যালেক্স, ফেমিনিজম আর অ্যানার্কিস্ট দর্শনের এই স্পষ্টবাদী সাহিত্য ছাপতে অবশ্য সে যুগে প্রকাশকদের সাহস হয়নি, তার এক বন্ধু ছাপাখানা থেকে চটি বই ছাপিয়ে এনে বিলি করেছিল সবাইকে। সেই বই এখন একশ পঞ্চাশটা ভাষায় অনূদিত হয়েছে।

এহেন ভারতবর্ষে এসে অ্যালেক্সের মনের বিস্তার যে হবে, সে তো জানাই ছিল। বেনারসে এসে স্বামী ভাস্করানন্দ সরস্বতী আর অন্যান্য সংস্কৃত পন্ডিতদের সঙ্গে আলোচনা হয় তাঁর, বিভিন্ন বৌদ্ধ বিহারে গিয়ে সে ধীরে ধীরে পালি ভাষার লিটারেচর সম্পর্কে জানতে পারে... অ্যালেক্সের ভাবনা ক্রমে আরো প্রসারিত হচ্ছিল। ফ্রান্সে ফিরে গিয়ে সে সংস্কৃত আর টিবেটান ভাষা আর দর্শন নিয়ে পড়াশুনা শুরু করে, লেখালিখিও চালিয়ে যায় পুরোদমে। তখন সে ব্রিটিশ মিউজিয়মে গিয়ে রাজনৈতিক দর্শন নিয়ে দীর্ঘ গবেষণাও করেছে, অ্যানার্কিস্ট মুভমেন্টের জন্য প্যামফ্লেট ডিজাইন করেছে, প্রবন্ধ লিখেছে। তাঁর লেখা রিসার্চ পেপারগুলো সারা ইউরোপের মিউজিয়ামে ছড়িয়ে আছে। আর দেশভ্রমণ তো আছেই। এদিক অপেরা সঙ্গীতের সফল গায়িকা হিসেব তার খ্যাতিও প্রায় চূড়ায় পৌঁছে গিয়েছে সারা দুনিয়ায়। কয়েক বছর আগে বাবার কথা শুনে বেলজিয়ামে গান আর পিয়ানো শিখতে গিয়েছিল, খানিকটা আর্থিক অভাব মেটাতেই, কিন্তু গানের সহজাত প্রতিভা ছিল তাঁর। ফলে গায়িকা হিসেবে খ্যাতি পেতেও দেরি হয়নি। নানান দেশ থেকে ডাক আসে অ্যালেক্সের কাছে, অপেরায় গান গাওয়ার জন্য। আজ এশিয়া, কাল আরব, পরশু ইউরোপ। দম ফেলার ফুরসত নেই। আর ফরাসি সমাজে তো অ্যালেক্সকে সবাই একডাকে চেনে। 

১৯০০ সালের প্যারিস, প্রায় কিংবদন্তির শহর। কত কত কালজয়ী শিল্পী, লেখক, সঙ্গীতকার এই সময়ে প্যারিসে বসবাস করতেন, সে কথা তো সকলেই জানে। তাদের অনেকের সঙ্গেই অ্যালেক্সেন্দ্রার ভালো সম্পর্ক ছিল। ফরাসি সমাজের সোস্যালিস্ট আইকন আর পেজ থ্রি সেলেব্রিটি হিসেবে চাইল দিব্যি প্যারিসে বসে আরামের জীবন কাটিয়ে দিতে পারত, বিউটি উইথ দ্য ব্রেন খেতাব পেয়ে ইতিহাসে থেকে যেত সন্দেহ নেই। কিন্তু অ্যালেক্স পুরোপুরি অন্য ধাতুতে গড়া মেয়ে। বন্দি কা দিমাগ কুছ অলগ হি চলতা থা! 

১৯০৪ সালে প্রেমিক ফিলিপ নীলের সঙ্গে বিয়ে করে কয়েক বছর সুখে কাটিয়েছিলেন অ্যালেক্স। ফিলিপ টিউনিশিয়ান রেলওয়েতে ইঞ্জিনিয়ার ছিলেন, টিউনিস অপেরা হাউসেই তাঁদের আলাপ। ফিলিপ আর অ্যালেক্সের অসামান্য প্রেমকাহিনি নিয়েই একটা বই লিখে ফেলা যায়, কিন্তু সে কথা এখানে থাক!

১৯১১ সালে অ্যালেক্স বললেন, তিনি তৃতীয়বারের জন্য ভারতে যাবেন৷ পারলে তিব্বতেও যাওয়ার চেষ্টা করবেন। ফিরে আসবেন উনিশ মাস পর। ফিলিপ শুনে হেসেছিলেন, সম্মতিও দিয়েছিলেন সানন্দে। তিনি ভালোই জানতেন, অ্যালেক্স ফিরতে পারবেন না। কিন্তু অ্যালেক্স যে পথে না বেরোলে ভালো থাকতে পারবেন না, এটাও তিনি খুব ভালো করেই বুঝে গিয়েছিলেন। 

অ্যালেক্স ফিরেছিলেন ঠিকই, কিন্তু উনিশ মাস নয়, চোদ্দ বছর পর। 

এই চোদ্দ বছর ধরে ভারত আর তিব্বতে সুদীর্ঘ যাত্রা করেন তিনি, প্রথম মহিলা অভিযাত্রী হিসেবে লাসাতেও গিয়েছিলেন। আইনত অনুমতি ছিল না, পরোয়া করেননি অ্যালেক্স। মাসের পর মাস ট্রেক করেছেন হিমালয়ের দুর্গম গিরিপ্রান্তরের উপর দিয়ে, সঙ্গে ছিল এক বাচ্চা লামা য়োঙদেন। তাকে দত্তক নিয়ে নিয়েছিলেন অ্যালেক্স। সেই অসম্ভব যাত্রার বর্ণনা পড়লে গায়ে কাঁটা দিয়ে ওঠে। ভুলে গেলে চলবে না, সময়টা একশো বছর আগে। তখন  তিব্বত যেতে যে গিরিলঙ্ঘন করতে হত, তাতে কেউই এই পথে পা বাড়ানোর সাহস করত না। জনাকয়েক অসম সাহসী অভিযাত্রী, রাজনৈতিক গুপ্তচর আর লামাদের কথা যদি ছেড়ে দিই, কেউ লাসার নাম মুখেও আনত না। আর এই পরিস্থিতিতে পশ্চিমা কোনও মহিলা যে ও পথে যাবে না, সে বলাই বাহুল্য। কিন্তু অ্যালেক্স অ্যালেক্স। তিনি শুধু সফলভাবে হিমালয় পেরিয়ে তিব্বতেই যাননি, এই দীর্ঘ যাত্রার খুঁটিনাটি লিখে দিয়ে গেছেন। যাত্রাপথেই ফিলিপকে চিঠি লিখতেন, রান্না করতেন বাচ্চা লামা য়োংদেনের জন্য। বিপদ এসেছে, শরীর খারাপ হয়েছে, কপর্দকশুন্য অবস্থায় কেটে গিয়েছে মাসের পর মাস। একসময় খাওয়ার টাকাও ছিল না। লাসায় গিয়েও ভিখারিনী সন্যাসিনীর ছদ্মবেশে সময় কাটিয়েছেন, পোটালা প্যালেসের সামনে তার একটা ছবিও আছে ওই অবস্থায়। কিন্তু মুহুর্তের জন্যও ভেঙে পড়েননি। 

তিব্বতে যাওয়ার আগে সিকিমেও দীর্ঘ সময় কাটিয়েছেন অ্যালেক্স, বহু মূল্যবান পুথি আর বইয়ের অনুবাদও করেছেন। সেই সময়ের দালাই লামার সঙ্গে তার দেখাও হয়েছিল। কিন্তু অন্তরে 'নোমাদ' জীবনের ধ্বজাধারীণী ছিলেন তিনি। ভ্রমণই তাঁর দর্শন, পথই তার ঘর। পথে না বেরোলে শান্তি পেতেন না অ্যালেক্স। তিব্বতেই থামেননি অ্যালেক্স, সেখান থেকে চীন, কোরিয়া, জাপান, মঙ্গোলিয়াও ঘুরে এসেছেন। 

চোদ্দ বছর পর ফিলিপের সঙ্গে দেখা হলে ফিলিপ তাকে জড়িয়ে ধরে হেসেছিলেন, একবারের জন্যও বিরক্তি প্রকাশ করেননি। তাঁর লেখা সব চিঠি যত্ন করে রেখে দিয়েছিলেন, মারা যাওয়ার আগে সব তুলে দেন অ্যালেক্সের দত্তক পুত্র য়োংদেনের হাতে। অ্যালেক্সের সঙ্গে আইনত সম্পর্ক বিচ্ছেদ হয়ে গিয়েছিল ১৯২৫ সালেই, কিন্তু সেপারেশনের পর শেষ দিন অব্দি দু'জনে পরস্পরকে চিঠি লিখে গিয়েছেন। সেই চিঠি পড়লে বোঝা যায়, 'টুরু লাভ'-এর জন্য ফেসবুক পোস্ট দিতে হয় না, ভ্যালেন্টাইন্স ডে সেলিব্রেট করতে হয় না, এমনকি সঙ্গে থাকতেও হয় না।

অ্যালেক্স অবশ্য থেমে যাননি। তিনি জন্ম ভবঘুরে, তাকে ধরে রাখে কার সাধ্য! সারা জীবন ভ্রমণ করেছেন, লিখেছেন, অভিযান করেছেন একের পর এক। টিউনিশিয়া গিয়ে ক্যাসিনো চালিয়েছেন, ভিয়েতনামে গিয়ে পারফর্মিং আর্টসের অনুষ্ঠান করেছেন, বিভিন্ন সিক্রেট সোসাইটিতেও নাকি তাঁর আনাগোনা ছিল। সাতাশি বছর বয়সে তিনি ঠিক করেন, নাহ! জীবন একঘেয়ে হয়ে গেছে। ফ্রান্স ছেড়ে এইবার অন্য জায়গায় ডেরা বাঁধা যাক! তল্পিতল্পা, ব্যাকপ্যাক নিয়ে সাতাশি বছরের সেই যুবতী মেয়ে মোনাকোতে গিয়ে উপস্থিত হল। নতুন দেশের মজাই আলাদা! এরপর আরেক কাণ্ড! থাকার জায়গার খাওয়া পছন্দ হয়নি বলে কিনা অ্যালেক্স ঘরই ভাড়া নিলেন না, বাড়িও কিনলেন না। টাকাপয়সা যথেষ্ট ছিল, দিব্যি একটা বাড়ি কিনে ফেলতে পারতেন, নিয়োগ করতেন চাকরবাকর। কিন্তু অ্যালেক্স সিদ্ধান্ত নিলেন, রোজ অন্য হোটেলে গিয়ে থাকবেন, তাতে নতুন নতুন খাবার চেখে দেখা যাবে। অভিজ্ঞতাও হবে। (হায়! মুড়ি আর আলুপোস্ত সর্বস্ব বাঙালি টুরিস্ট! তুমি আর তোমার পেটের ব্যামো!) 

১৯৫৯ সালে মেরি ম্যাডেলিন বলে একজন তার সেক্রেটারি হতে চাইলে অ্যালেক্স বারণ করেননি। তাঁকে নিয়েই ঘুরে বেড়াতেন এরপর থেকে। ফিলিপ মারা গিয়েছিলেন অনেক আগে, য়োংদেনও মারা গিয়েছিল। সমস্ত জীবনী শক্তি নিয়ে বেঁচেছিলেন এই দস্যি মেয়ে। তাকে বুড়ি বলে কার সাধ্য!

হিপি বিপ্লব আর বিট জেনারেশন এর যুগ চলছে, বব মার্লে আর জিমি হেনড্রিক্সের গান শুনে তিনি নাচতেন বলে ম্যারি জানিয়েছিলেন। অ্যালেন গিন্সবার্গ তো তাঁর ভক্তই হয়ে গিয়েছিলেন। একশ বছর বয়সে পাসপোর্ট রিনিউয়ালের অ্যাপ্লিকেশন দেন অ্যালেক্সেন্দ্রা। পাসপোর্ট অফিসাররা তাজ্জব হয়ে জিজ্ঞেস করেন, "রিনিউয়াল করতে চান কেন?"

অ্যালেক্স হেসে বলেছিলেন, "জাস্ট ইন কেস!"

১০১ বছর বয়সে মারা যান অ্যালেক্সেন্দ্রা ডেভিড নীল। আসলে বেঁচেই আছেন। শুধু সামনাসামনি দেখা হবে না, এই যা! তবে আমাদের জন্য তিনি তিরিশ চল্লিশটা বই লিখে গিয়েছেন। তাঁকে ভালো করে জানতে হলে, পড়তে পারেন। একশ বছর বাঁচব না জানি। কিন্তু যতদিন বাঁচব, অ্যালেক্সের মতো এই বাঁচার আগ্রহটা যাতে হারিয়ে না যায়। তাহলেই নো টেনশন। এইটুকুই প্রার্থনা।